शुक्रवार, 29 मार्च 2024

हिंदी के काँटे [व्यंग्य]

 158/2024

             

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

काँटे केवल पेड़ पर ही नहीं होते।यदि गुलाब के पौधे जैसे काँटे हों तो सहन भी किए जाएं,किंतु जिनका उद्देश्य केवल चुभना और केवल चुभना ही हो तो वे गुदगुदाएंगे नहीं। चुभेंगे ही।आज कवि और कवयित्रियाँ धुआँदार धुँआधार लेखन कर रहे हैं।हिंदी में काव्य और गद्य आदि लेखन की बाढ़ नहीं सुनामी आई हुई है और लोग हैं कि रातों रात कालिदास बन जाने की प्रतियोगिता  में दौड़ लगा रहे हैं।कुछ कछुए/कछुइयाँ खरगोशों से आगे निकल चुके हैं।और बेचारे खरगोश नीम के पेड़ की घनी छाँव में बैठे इत्मिन्नान से आराम फ़रमा रहे हैं कि उन्हें कोई जलदी नहीं। पहुंच ही जाएंगे, अभी कोई देर नहीं हुई है। किंतु वे देखते हैं कि कुछ कछुए और कुछ कछुइयाँ उनसे भी बहुत पहले गले में माला और कंधों पर शॉल सुशोभित किए हुए मुस्करा रहे हैं।

तथाकथित खरगोशों के द्वारा ऐसा कुछ धमाल किया जा रहा है कि ऐसा लिखो कि किसी के पल्ले न पड़े।सामने वाला शब्दकोष लेकर बैठे तब तक साहित्य की गाड़ी कहाँ से कहाँ जा पहुँचेगी। यहाँ कोई किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। बस सबको पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ जाना चाहता है।इसलिए दुरूह और अस्पष्ट लिखना ही वह सर्वश्रेष्ठ साहित्य का मानक मानता है।कुछ लोग तो स्वयं शब्दकोश लेकर ही बैठते हैं ,और उसमें से क्लिष्ट से क्लिष्ट शब्द खोजकर शब्दों के सीमेंट से चिपका देते हैं।उन्हें किसी पाठक से कोई मतलब नहीं है।उनकी दृष्टि में यही सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। आज हँसगुल्लों के सम्मेलन कवि सम्मेलन के नाम से ख्याति प्राप्त करते हैं अथवा क्लिष्ट काव्य सृजेताओं के काव्य उच्च कोटि के साहित्य का सम्मान प्राप्त करते हैं।

विचारणीय है कि जब किसी रचना का भाव ही किसी पाठक/श्रोता की पहुँच से बाहर हो ,तो उसका औचित्य ही क्या है।ऐसे ही साहित्य को आजकल  वाहवाही भी खूब मिलती है और मिल भी रही है।कोई भी श्रोता से पूछने तो नहीं जा रहा है कि आप क्या समझे? ताली बजाने या वाह ! वाह!! करने में जाता भी क्या है ! यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपको निम्न स्तरीय श्रोता समझ लिए जाने का खतरा है।काँटों को फूल समझिए और सामने वाले को सराहिए। इससे आप प्रबुद्ध वर्ग में आगणित किए जाएँगे।

कंटक प्रेमी साहित्यकारों का प्रायः यही तर्क रहता है कि उनका साहित्य किसी आम ऐरे गैर नत्थू ख़ैरे के लिए नहीं है। बल्कि वह केवल प्रबुद्ध वर्ग के लिए है।यदि आप भी ऐसे ही प्रबुद्घ वर्ग में शामिल होना चाहते हों अथवा पहले से ही उसके समर्थक हों, तो फिर कहना ही क्या ?क्योंकि प्रबुद्ध होना किसी शॉल माला से कम नही।कोई यों ही थोड़े बन जाता है प्रबुद्ध ? किसी भी समाज में मूर्खों की तरह  'प्रबुद्धों' की संख्या भी अँगुलियों के पोरुओं पर गिनने योग्य ही होती है।अर्थात ऐसे लोग कम ही होते हैं। यदि आप सामान्य ही बने रह गए तो फिर आपका महत्त्व ही क्या रहा ! इसलिए कुछ खास बने रहने में ही आप साहित्यिक वर्ग के सितारे बनकर चमक सकते हैं।

फूलों से काँटों की ओर प्रस्थान की साहित्यिक यात्रा का गंतव्य अनिश्चित है।बस आप नेताओं की तरह अपने समर्थक पैदा कर लीजिए।आज का युग  बहुमत का है। बहुमत भले ही मूर्खों का हो ,चलेगा। बहुमत अवश्य होना चाहिए। किन्तु इस कंटक यात्रा में आप अकेले नहीं चल सकते।अकेला सो पिछेला।और पीछे भला कौन रहना चाहता है ! यह 'प्रबुद्धीय' दौड़ ही ऐसी है कि सबको अपने को 'स्पेशल' बनाकर उजाकर करना है।सामान्य से इतर होना ही इस दौड़ का लक्ष्य है।अरे भाई !आप कोई भेड़ के रेवड़ का हिस्सा थोड़े हैं,जो भेड़चाल से चलें !  आप तो उससे सर्वथा भिन्न एक 'विशिष्ट' शल्य पथ के राही हैं।

शुभमस्तु !

29.03.2024●10.15 आ०मा०

बुधवार, 27 मार्च 2024

बुरा नहीं कोई रंग [अतुकांतिका]

 156/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

   


बुरा नहीं कोई रंग

न काला न लाल,

बहता है रग-रग में एक

करे सुमन में कमाल,

काला भी अशुभ नहीं

रहस्य का तमरूप,

बुरी नजर से बचाता है

काम बेमिसाल।


रंग बिना दुनिया क्या

बहुरंगी ये संसार,

सबकी है पहचान अलग

तम या उजियार।


कहीं फूली सरसों पीत

कहीं महकता गुलाब,

यौवन का भी एक रंग

भर देता नई आब,

अपराजिता नीली सेत

कनेर पीली श्वेत

गुलाबी भी बोगनविलिया

सूरजमुखी नेक।


धतूरा भी कमतर क्यों

सेमल या पलाश,

गुलमोहर खिलखिलाए

वह देखो अमलतास।


दुनिया है रंग -रँगीली

करो मत उपहास,

सबको ही  'शुभम् 'मान दो

करना है प्रयास।



शुभमस्तु !


26.03.2024● 4.30प०मा०

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मंगलवार, 26 मार्च 2024

सबका अपना रंग [ गीत ]

 155/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तरह - तरह के

रंग जगत के

सबका अपना रंग।


कोई नीला 

लाल गुलाबी 

काला पीला सेत।

हरा बैंजनी

धूसर कोई

कहीं रंग समवेत।।


कोई भी रँग

अपनाएं प्रिय 

हो न रंग में भंग।


रंग न होते

यदि दुनिया में

हो जाता बदहाल।

रंग हमारे

अभिज्ञान हैं

रंगों की ही ताल।।


जिसका कोई 

रंग नहीं है

नहीं किसी के संग।


होली दीवाली

का अपना 

अलग -अलग किरदार।

होली में रँग

बरसे मधुमय

उधर   दियों  का   प्यार।।


एक रंग

बदरंग सभी का

देख न होना दंग।


रंगों में बँट 

बिखर न जाएँ

होली का संदेश।

धर्म जाति 

संस्कृतियाँ जुड़कर

हो महान ये देश।।


रहें सभी मिल

भारतवासी

करें न जन को तंग।


शुभमस्तु !


26.03.2024●8.30आ०मा०

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सोमवार, 25 मार्च 2024

रंगोत्सव होली [ दोहा गीतिका ]

 154/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फ़ागुन    है   मनभावना, होली  का हुड़दंग।

भँवरे    मंडराने   लगे,   बजा   रहे   हैं   चंग।।


होरी  से  धनिया  कहे,  आ जाओ भरतार।

हम  तुम   होली  खेल  लें, बरसें सारे   रंग।।


भौजी इसका राज क्या,कसी कंचुकी लाल।

लगता यौवन ने किया, इसको इतना तंग।।


कोकिल  बोले  बाग में,    कुहू -कुहू के  बोल।

विरहिन   को  भाता  नहीं,तप उठते हैं   अंग।।


पीली  चादर  ओढ़कर , निकली धरती  आज। 

महुआ  महके   बाग  में,  भरता मधुर   उमंग।।


सेमल  लिए   गुलाल  की,लाल पोटली   एक।

मुस्काता  है  रात -दिन, बहे  प्रेम  रस    गंग।।


पिचकारी   क्यों  मौन हो,बैठे छिपकर   गेह। 

'शुभम्'   कहें   मधुमास  में,घूमें मस्त मलंग।।


शुभमस्तु !


25.03.2024●9.15 आ०मा०


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रंगोत्सव [ सजल ]

 153/2024

                    

समांत : अंग

पदांत : अपदांत

मात्राभार : 24.

मात्रा पतन:शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फ़ागुन    है   मनभावना, होली  का हुड़दंग।

भँवरे    मंडराने   लगे,   बजा   रहे   हैं   चंग।।


होरी  से  धनिया  कहे,  आ जाओ भरतार।

हम  तुम   होली  खेल  लें, बरसें सारे   रंग।।


भौजी इसका राज क्या,कसी कंचुकी लाल।

लगता यौवन ने किया, इसको इतना तंग।।


कोकिल  बोले  बाग में,    कुहू -कुहू के  बोल।

विरहिन   को  भाता  नहीं,तप उठते हैं   अंग।।


पीली  चादर  ओढ़कर , निकली धरती  आज। 

महुआ  महके   बाग  में,  भरता मधुर   उमंग।।


सेमल  लिए   गुलाल  की,लाल पोटली   एक।

मुस्काता  है  रात -दिन, बहे  प्रेम  रस    गंग।।


पिचकारी   क्यों  मौन हो,बैठे छिपकर   गेह। 

'शुभम्'   कहें   मधुमास  में,घूमें मस्त मलंग।।


शुभमस्तु !


25.03.2024●9.15 आ०मा०


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शुभम् कहें जोगीरा:50 [जोगीरा ]

 152/2024

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चार  गधे   मिलकर   घूरे पर,चरते सूखी  घास।

तानाशाह  सोचता  मन  में, उड़ा  रहे उपहास।।

जोगीरा सारा रा रा रा


करे  नहीं विश्वास  किसी पर,लगें सभी  षड्यंत्र।

आपस में ये  सभी गधे मिल,पढ़ें विरोधी    मंत्र।।

जोगीरा सारा रा रा रा


एकछत्र   साम्राज्य    चाहता,वन में खूनी     शेर।

सबके  प्रति  शंका  ही उपजे,खाता क्यों वह बेर।।

जोगीरा सारा रा रा रा


अन्य  जीव  को   तड़पाने  में, लेता वह   आनंद।

बुनता  वह प्रायः  रहता  है, उलटे-पुलटे   फंद।।

जोगीरा सारा रा रा रा


शांति  एक  पल  नहीं  सुहाती, तानाशाही   सोच।

देख  दुखी  जनता को अपनी,जन्म न  लेती  लोच।।

जोगीरा सारा रा रा रा


धृतराष्ट्रों    की अंधी   आँखें,देखें महा   विनाश।

देश रसातल  में वह जाता,मिटता पूर्ण   प्रकाश।।

जोगीरा सारा रा रा रा


'शुभम्' कहें जोगीरा चेतन,करना उसका काम।

भला सुखद हो जीव मात्र का,रक्षक हैं  श्रीराम।।

जोगीरा सारा रा रा रा


शुभमस्तु !


24.03.2024●6.45आ०मा०

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शुभम कहें जोगीरा :49 [जोगीरा ]

 151/2024

     


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जंगल में   चुनाव  का  डंका, बजने लगा  अबाध।

कोई  भी ले  टिकट लड़ सके ,किए भले अपराध।।

जोगीरा सारा रा रा रा


एक नहीं  दो चार सीट से,लड़ने की है  छूट।

जैसे भी  हो  सीट जीतना,करो भले ही  लूट।।

जोगीरा सारा रा रा रा


जिसके  आगे- पीछे  चलते,गुंडे यदि दस  बीस।

बड़ा    वही    कहलाए  नेता, रहे  नहीं    उन्नीस।।

जोगीरा सारा रा रा रा


बंदर गधा और  हाथी   ने,  पर्चा  भरा   निशंक।

शेर सिंह   के  आगे    चीता, करे नहीं  आतंक।।

जोगीरा सारा रा रा रा


नामांकन  हो  रहे  धड़ाधड़,चूहा बिल्ली  साथ।

मौन खड़े खरगोश बराबर,गिद्ध झुकाए माथ।।

जोगीरा सारा रा रा रा 


हेंचू - हेंचू  गर्दभ बोला,  पालन कर  आचार।

रहें  संहिता  की   सीमा  में, तब हो बेड़ा पार।।

जोगीरा सारा रा रा रा


'शुभम्' कहें  जोगीरा जंगल, बदलेगा अब  राज।

कागा  नहीं   चुगेगा   मोती, हंसराज आगाज।।

जोगीरा सारा रा रा रा


शुभमस्तु !


23.03.2024●9.15प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...